Friday, February 29, 2008

30th January poem

अब क्या कहू तुमसे सुबह का अधुरा ख्वाब हो तुम
अब क्या कहू तुमसे सुबह का अधुरा ख्वाब हो तुम
चढाते चढाते जो रह गया एक ऐसा हल्का नशा हो तुम
बंद हाथो से फिसलती सुनहरी रेट हो तुम
सागर तक पहुंचे जो ना नदी
उस नदी कि आँखों का पानी हो तुम
मैं जहा देखू जहा मुदु बस वही मौजूद हो तुम
मैं जहा देखू जहा मुदु बस वही मौजूद हो तुम
गर आँखें बंद हो मेरी तो मेरी साँसों मे हो तुम
और आँखें खुले तो मेरे दिल कि तस्वीर हो तुम
मुझमे होकर भी मुझसे कोसो दूर हो तुम
सुबह होते ही खो गयी जो चांदनी वो चांदनी हो तुम
रात फिर आ रही ये चाँद भी निकलेगा ही
तुम ना होगी ना चांदनी होगी
पर मेरी सुबह कि हर पहली किरण वो किरण हो तुम
तेरी आँखों से गिराने वाले आंसू
मोती बनकर मेरी आँखों मे बस जाये वो मोती हो तुम
मैं हर बार सोच कर जिसे महसूस करता हु
मेरी वो बात हो तुम
तेरी हर बात से तेरे गुस्से से भी प्यार करू मेरा वो गुस्सा हो तुम
मोहब्बत करो पर मोहब्बत को कोसो मत
मोहब्बत करो पर मोहब्बत को कोसो मत
तेरी बेवफाई पर भी मैं मर मिट जाऊ वो बेवफाई हो तुम
तेरी ख़ुशी के लिए तेरी शादी मे आना चाहू
बस आँखें बंद कर रोज़ दुआ करता हुआ
आंखें बंद करने के बाद जिस चेहरे को देखना चाहू वो चेहरा हो तुम
पूजा तो करता हूँ मैं रोज़ भगवान् की मगर
जब मैं अगरबत्ती जलाऊ तो अगरबत्ती का धुआं तस्वीर तेरी बनाये वो अगरबत्ती हो तुम
मैं रोज़ एक नयी खुशबु लगाकर अपने बदन से निकलता हु
मगर मेरी साँसों मे बसी जो खुशबु हैं
बस वाही पुराणी सी मेरी अपनी सी मोहब्बत मेरी मोहब्बत मेरी मोहब्बत हो तुम

1 comment:

Anonymous said...

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