Friday, February 29, 2008

31st january poem - maine har kanta teri rah ka

मैंने हर कांटा तेरी राह का अपनी पलकों से चुना
मैं कहता हूँ मैं हूँ तेरा दीवाना पर कहाँ किसी ने सुना
जाने क्या सोचके हर ज़ुल्म सह रखा हैं
क्या मैं पथ्थर हूँ जो तुने मुझे कदमो मे सजा रखा हैं
मैंने रखा हैं दिल मे अपनी मोहब्बत का भरम
मैंने रखा हैं अपने दिल मे अपनी मोहब्बत का भरम
वरना ए हरजाई इस प्यार मे क्या रखा हैं
तेरी बेवफाई कि बात मैं अपने होठो पर कभी नहीं लूँगा उम्म्हुह
तेरी बेवफाई कि बात मैं अपने होठो पर कभी नहीं लूँगा
तु मुकद्दर मे नहीं मेरे एक दिन फुर्सत मिली
तो ज़रूर इस मुकद्दर को समझाऊंगा
हाल-इ-दिल सुनाये तुझे शायद दिल को ये फुर्सत ना मिले
तभी तो एक दिन तेरी दुनिया से बहुत दूर चला जाऊंगा
ये मुक़द्दर का लेखा हैं कोई तकरार नहीं
ये मुक़द्दर का लेखा हैं कोई तकरार नहीं
मेरी किस्मत मे कहीं कोई दीवार तो नहीं
अब मैं तुझसे भी कूच पुच पुच के पुचने लगा हूँ
मगर मुझे लगता हैं मेरे दिल के अंदर छुपी हो जो कोई बात ऐसी कोई बात नहीं
ये गुनाह सबसे बड़ा हैं पर मैं तेरी मोहब्बत का गुनेहगार नहीं
ये गुनाह सबसे बड़ा हैं पर मैं तेरी मोहब्बत का गुनेहगार नहीं
मैंने हर कांता तेरी राह का अपनी पलकों से चुना
मैं कहता हूँ मैं हूँ तेरा दीवाना ना जाने तुने क्यों ना सुना
कहाँ तो था ये चिराग हर घर के लिए और कहाँ इस चिराग को एक घर भी ना मिला
यहाँ घरो के साये मे भी धुप लगाती हैं
आओ शोना चलते हैं यहाँ से किसी ऐसी जगह जहा शाम ढलती हैं
ना हो कमीज़ तो तेरे अहसास को खुद से धक् लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस शहर मे इस सफ़र के लिए
खुदा ना सही आदमी ही सही
तेरी उन प्यारी नज़रो को हम कुछ ना कुछ इनाम देंगे
और कुछ नहीं मिला तो तो सच कहू
अपने हाथ से अपना दिल निकलकर तेरे कदमो मे दाल देंगे
मैंने हर काँटा तेरी .............

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