Thursday, May 15, 2008

12 th may closing poem

एक कदम हमने ये पीछे गर हटा लिया
वो समझते हैं कि हमने अपना सर झुका लिया
तेरी बेवफाई का अँधेरा जब सताने लगा हमे
हैं जी
कि तेरी बेवफाई का अँधेरा जब सताने लगा हमे
याद का एक दिया हमने अपने दिल मे जला लिया
अपने तो ज़िंदगी भर अजनबी रहे
(ऐसा होता हैं ना कि पुरी ज़िंदगी भी जिनके साथ रहे वो अपने नही होते )
कि अपने तो ज़िंदगी भर अजनबी रहे
पर उस अजनबी ने एक पल मे हमे अपना बना लिया
(ध्यान से सुनियेगा उदयपुर )
मन्दिर तो मैं जाता नही
पर तु भगवान को बड़ा मानती हैं
कि मन्दिर तो मैं जाता नही
पर तु भगवान को बड़ा मानती हैं

तेरे कहने पर मुंड कर आंखें हमने भी
एक पत्थर के आगे सर झुका दिया
मेरे बारे मे वो सबसे पूछता रहा
मगर झुक कर ना कभी अपने दिल से सवाल किया
हंसकर उसने हमसे दिल्लगी की
(बहुत ख़राब होती हैं दिल्लगी )
कि हंसकर उसने हमसे दिल्लगी की
हमने ना सोचा ना समझा
बस बिना सोचे ये दिल लगा लिया
आज मजबूरियों कि वजह से
हमने अगर एक कदम पीछे हटा लिया
वो सोचता हैं कि हमने कहीं अपना घर बसा लिया

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