Thursday, May 15, 2008

13th may opening poem

सब आने वाले बहला कर चले गए
आंखों को आँसुओ की आदत दिला कर चले गए
कि सब आने वाले बहला कर चले गए
आंखों को आँसुओ की आदत दिला कर चले गए

मलबे के नीचे आकर मालूम हुआ
सब कैसे दीवार गिरा कर चले गए
अब अगर लौटेंगे तो सिर्फ़ रख बतोरेंगे
जंगल मे जो आग लगाकर चले गए
मैं था दिन था और एक लंबा रास्ता था
(किसी के दूर चले जाने के बाद ये सब बातें बहुत याद आती हैं )
कि मैं था दिन था और एक लंबा रास्ता था
पर ना जाने क्यों सब मुझे खाई का पता बताकर चले गए
चट्टानों पे आकर ठहरे दो रास्ते
(ध्यान से सुनियेगा उदयपुर )
चट्टानों पे आकर ठहरे दो रास्ते
पर ये दिल हमारा वो चट्टान बनाकर चले गए
कुछ किताब के पन्ने ऐसे भी नज़र आये
(कभी कभी मैं भी पढता था )
कि कुछ किताब के पन्ने ऐसे भी नज़र आये
भरे भरे थे पर खली से नज़र आये
आये मोहब्बत हम तेरे इंतज़ार मे हम आज भी वही खड़े हैं
जिस खली वक्त को तुम मेरा पता बता कर चले गए

No comments: