Thursday, May 8, 2008

9th may opening poem

काश वो फूल सी मुस्कराहट मेरे लिए होती
वो मासूम शरारत मेरे लिए होती
मैं उस जुल्फ कि छाँव मे सो जाता अगर
वो काली रात मेरे लिए होती
(कई बार मन मे ख्याल आता होगा कि काश ऐसा होता काश वैसा होता )
वो रात भर घूमती अपना कंगन
वो रात भर घूमती अपना कंगन
पर काश वो बैचैनिया वो बेताबिया
मेरे लिए होती
वो एक तारा था खुले आसमा मे
कि वो एक तारा था खुले आसमा मे
पर काश वो रोशनी मेरे लिए होती
मेरे वजूद मे भी ज़िंदगी का सुराग मिलता
मेरे वजूद मे भी ज़िंदगी का सुराग मिलता
आगर वो प्यार कि नज़र मेरे लिए होती
रिश्ता कुछ तो बन जाता अपना
मोहब्बत ना सही नफरत ही होती
पर मेरे लिए होती

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