Wednesday, May 7, 2008

3rd may opening poem

मोहब्बत मुझे थी उससे सनम
बस कभी कह ना पाए उससे हम
(ध्यान से सुनियेगा आज की इस poem को)
मोहब्बत मुझे थी उससे सनम
बस कभी कह ना पाए उससे हम

वो रोज़ बालकनी मे टहलती थी
वो रोज़ बालकनी मे टहलती थी सारी सारी रात देख उसको हमारी रात बहलती थी
(ऐसा तो कई बार हुआ होगा ना उदयपुर कि अपनी मोहब्बत को देखने के लिए आप सारी रात बालकनी मे टहलते रहे )
वो रोज़ बालकनी मे टहलती थी
सारी सारी रात देख उसको हमारी रात बहलती थी

एक पेड़ को मैं रोज़ मैं बहुत पानी पिलाता था
एक पेड़ को मैं रोज़ मैं बहुत पानी पिलाता था
यही वो पेड़ था जो उसकी बालकनी तक जाता था
और सरे मोहल्ले वालो को हमारा प्रकृति प्रेम नज़र आता था
दिन रात सुबह शाम मैं उस पेड़ के आसपास ही मंडराता था
(आय हाय आपके चहरे पे आ रही smile बता रही हैं कि बहुत बार हुआ हैं ऐसा )
यही वो पेड़ था जो उसकी बालकनी तक जाता था
और सारे मोहल्ले वालो को हमारा प्रकृति प्रेम नज़र आता था

पर मोहब्बत परवान चढ़ती कैसे
पेड़ के साथ साथ कभी कभी मुझे उसका भाई नज़र आता था
(पर जो होना होता हैं वो होता हैं)
पर दोस्ती उसके भाई से हो गयी जब उसकी बल एक दिन हमारे आँगन मे खो गयी
पर दोस्ती उसके भाई से हो गयी जब एक दिन उसकी बल हमारे आँगन मे खो गयी
सिलसिला उसके घर जाने का शुरू हो गया
(खूब मिठाई bantwaayi thi )
सिलसिला उसके घर जाने का शुरू हो गया
उसकी मम्मी दादी अब मेरी मम्मी दादी हो गयी
और उसके घर के जानवरों को मुझसे प्यार हो गया
(और तो कोई करता नही उन्होने प्यार कर लिया )
उसकी मम्मी दादी मेरी दादी मम्मी हो गयी थी
और उसके घर के जानवरों को मुझसे प्यार हो गया

हमने सोचा कि कह देंगे अब दिल कि बात
मगर उसी दिन उसका entrance का पेपर clear हो गया
अगले दिन उसके पापा का ट्रान्सफर हो गया
पता चला प्यार व्यार का तो कुछ मालूम नही
हाँ आंखों ही आंखों मे बस उस बालकनी मे उससे इजहार हो गया

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