Wednesday, September 17, 2008

15th september closing poem

अगर नसीब को नही होती दर्द की पहचान
तो कहाँ होता इस RJ अंकित का जहान
शिकवा न करता कोई जिंदगी से
दिल का नाता न होता
ना दिल देता कोई पैगाम
गर नसीब को नही होती दर्द की पहचान
मायूस न हो कोई मुक़द्दर अपनी तन्हाई से
(कभी कभी बहुत अकेला लगता हैं न ! सब लोग साथ होते हैं तब भी )

मायूस न हो कोई मुक़द्दर अपनी तन्हाई से
हया नही हैं हमे अपनी बदनामी से
गर नसीब सबके दो चार होते
तो हम जैसे दीवाने भी हज़ार होते
हम तो तेरे लिए सिर्फ़ एक ही हैं
तुझे प्यार करने वाले शायद
थोड़े बदमाश पर थोड़े नेक ही हैं
गर खुदा मिल जाए तुम्हे
(मुझे तो मिलेगा नही )
गर खुदा मिल जाए तुम्हे
मुझे तो मिलेगा नही

क्यूंकि मैं खुदा को मानता नही
प्यार हैं जिंदगी इस प्यार के सिवा कुछ जानता नही
तो कहना इतना अपने उस खुदा से
की हमेशा उसका ध्यान रखे
हमेशा उसे खुश रखे
दे देना दुःख मुझे चाहे कितने भी
पर उस पर कभी दुःख का एक बादल भी न फिरे

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