Monday, September 22, 2008

22nd september opening poem

आंखों का रंग बातो का लहजा बदल गया
उनसे मिलने के बाद न जाने मैं क्यों बदल गया
कुछ दिन तो मेरा अक्स रहा उसकी आंखों मे
फ़िर क्यों हवा का वो झोंका उसका चेहरा बदल गया
जब हम अपने अपने हाल पर जी रहे थे
फ़िर क्या हुआ जो हमसे ज़माना बदल गया
कदमो तले जो रेत बिछी थी वो चल पड़ी
उसने छुआ हाथ तो सहारा बदल गया
कोई भी चीज़ अपनी जगह पर न रही
जाते ही एक शक्स के क्या क्या बदल गया
हैरत हैं सारे लफ्ज़ उसे बस देखते रहे
बातो मे अपनी बात को वो कैसे बदल गया
मेरी आंखों मे जितने आंसू थे वो सब बह गए
वो खुबसूरत बस मुस्कुरा के मेरी दुनिया बदल गया
अब अपनी गली मे अपना ही घर ढूंढ़ता हूँ मैं
वो कौन था जो शहर का नक्शा बदल गया

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