Wednesday, September 3, 2008

2nd september closing poem

कुछ गुस्सा कुछ नखरा कुछ इल्तजा भी आपकी
हमसे रूठना हमे सताना हाय इक अदा वो आपकी
हर बात पे हँसना तो हर बात पे मुस्कुरा देना
कभी बात बात पर तेरा मुह फुलाना
गुस्सा ऐसा कि फूलो को भी मनाते मनाते पसीना आ जाए
कभी बड़ी से बड़ी बात हंस कर माफ़ कर दे
कभी छोटी सी गलती को भी तु बड़ा बताये
तेरी बातो से ये दिल धड़कता हैं
तेरी साँसों से ही अब इन साँसों का चलना हैं
हर रात नींद मे छुप छुप कर तेरा मुझे misscall करना
कभी mere call karne पर तेरा phone cut कर देना
अपनी शर्मीली नजरो से सुर्ख होठो से
हाय मेरे लिखे खतो को ना जाने कितनी बार चूमना
क्या करे क्या क्या ना करे
दिल बयान करता नहीं अफ़साने तेरे
दिल बार बार बस यही कहता जाता हैं
हर कोई जो इस पल रडियो के बिलकुल पास चिपका हुआ हैं
वो अंकित को इस पुरे शहर मे अपना सा नज़र आता हैं

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