Monday, September 22, 2008

23rd september opening poem

कभी मैं खुद से खफा हो जाऊ
कि कभी मैं खुद से खफा हो जाता हूँ
और फ़िर बोलते बोलते चुप हो जाता हूँ
सोचता हूँ कि उस पल मैं किसी को नज़र ना आऊ
और फ़िर खुद से ही लिपट जाऊ
इस ठिठुरे हुए अहसास से कहीं दूर निकल जाऊ
पर कहाँ निकल पाता हूँ
मैं वो बर्फ हु कि
तु जो छू ले अपने होठो से
तो पिघल जाऊ मैं
तेरी चाहत मे कही इतना ना बदल जाऊ मैं
लिखने का सोचु किसी और विषय पर
और कलम से पुरे पन्ने पर तेरा नाम लिख जाऊ मैं
ये जाना पहचाना शहर अब लगता खुद से अनजाना हैं
जानता हूँ तुझे प्यार करता ये सिर्फ़ एक दीवाना हैं
दीवानगी मे कहीं इतना ना खो जाऊ मैं
सोचता हूँ कुछ पल मिले कि तेरे सिवा किसी को ना नज़र
कि तु कभी ना जाना इस अहसास से दूर
(अरे smile करना तो बंद करो )
कि तु कभी ना जाना इस अहसास से दूर
ऐसा ना हो कि कहीं अपनी ही बगल से निकल जाऊ मैं

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