Wednesday, September 17, 2008

17th september closing poem

वो चेहरे पे बनावट का गुस्सा
वो उसकी आंखों मे छलकता प्यार भी
तेरी इस अदा को क्या कहे
कभी इकरार भी कभी इनकार भी
मुझे मिला वक्त तो तेरी जुल्फे सुलझा दूंगा
अभी तो ख़ुद वक्त से उलझा हूँ
एक दिन वक्त को उलझा दूंगा
दिल ये अब कुछ मानता नही
उदयपुर तेरे सिवा अब ये कुछ जानता नही
पहले मेरे पास होती थी हजारो बातें करने को
आजकल तेरे सिवा कोई बात हो वो दिन कैलंडर मे आता नही
हर पल तुझे याद करना तुझे सोचना तुझे बेंतेहा प्यार करना
और मेरे उदयपुर तेरे लिए वो सब कुछ करना
जो किसे ने कभी किया ना हो किसी ने कभी सोचा ना हो

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