Tuesday, September 9, 2008

4th september closing poem

क्या कहू कैसे कहू दिल कि बात अपनी धडकनों से कैसे बाया करू
धक् धक् की आवाज़ मे आज किसका शोर हैं
दिल मुझे किसे देखने को करता मजबूर हैं
हौले हौले धीरे धीरे किसके कदम मेरे
मेरी तरफ़ बढ़ रहे
मेरे पीछे मुड़ते ही क्यों वो कदम वही थम रहे
ये किसका जादू हैं जो हर पल मेरी खुमारी बढ़ा रहा हैं
ये किसका नशा जो मुझे हर पल बहका रहा
ख़ुद को भुला के उसके अहसासों मे खो जाना ही
मगर हाँ कमबख्त वो चाँद भी उसका दीवाना हैं
कोरा था जो लम्हों का पन्ना आज उसमे एक रंग भर जाना हैं
खाली खाली था जो इस दिल का आइना उसे एक तस्वीर से सजाना हैं
और अब तारो को डोली मे बिठाकर संग उसके अपने घर ले आना हैं

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