Sunday, April 20, 2008

16 th april opening poem

समंदर की लहरें रेत के निशान मिटा देती हैं
हम नही कहते पर वो सागर की भीगी आंखें हमे सब बता देती हैं
कई आशिक आते हैं रुठी तन्हाइयो मे
(ये समंदर के दिल का दर्द हैं दोस्तो )
कि कई आशिक आते हैं रुठी तन्हाइयो मे
दर्द को अपनी बाहों मे समेटे हुए
कुछ यादों के घर उस रेत पर बनाते हुए
कुछ यादों से अपना घर सजाते हुए
कभी मंजिल समझलेते हैं हम उस किनारे को
(कभी कभी हम किसी ऐसी चीज़ को अपनी मंजिल समझ लेते हैं जो हमारी नही होती )
कभी मंजिल समझ लेते हैं हम दूर उस किनारे को
तो कभी दूर तैरती एक नांव हमे मंजिल नज़र आती हैं
पर हम प्यार करने वालो को अपनी मंजिल कब मिल पाती हैं
कभी मजिल समझ लेते हैं हम हर उस किनारे को
कभी दूर तैरती एक नांव हमे मंजिल नज़र आती हैं
पर हम प्यार करने वालो को कहाँ अपनी मंजिल मिल पाती हैं
हम तो बस लहरों की तरह आते हैं जाते हैं
उस किनारे को एक बार छूने के लिए ऐसे ही छटपटाते हैं
करो प्यार सबसे ना करना उस किनारे से
कमबख्त मैं सागर होकर भी वह तक कहाँ पहुंच पाता हूँ
और उस पर टहलने वाले हर प्यार करने वाले को उसके पास पाता हूँ
शायद मोहब्बत मे सब मिलता नही सबको
(ध्यान से सुनियेगा उदयपुर )
शायद मोहब्बत मे सब मिलता नही सबको
इसीलिए मैं अपनी भीगी पलको से आज भी मुस्कुराता हूँ
सागर की लहरे रेत के निशान मिटा देती हैं
हम नही वो भीगी पलके किसी की हमे उसके दिल का हाल बता देती हैं







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