Wednesday, April 30, 2008

25th april closing poem

एक प्यार से भरा दिल था
जिसके अरमानों को मैं पलको पर सजाया करता था
एक लड़की हैं शहर की चुप चुप सी
जिससे मैं दिल लगाया करता था
एक लड़की हैं शहर कि चुप चुप सी जिससे मैं दिल लगाया करता था
एक चेहरा बनकर ख्यालो मे आता था
फिर मैं उस चेहरे को भीड़ मे dhundha करता था
वो अक्सर बनती रेत के महल साहिलो पर
(याद हैं ना वो दिन जब किसी के साथ कोई सागर किनारे पर हम लोगो ने महल बनाये होंगे )
वो अक्सर बनती रेत के महल सहिलो पर
फिर मैं उन महलो मे अपना घर dhundha करता था
कई बार देखा उसे फूलों से बात करते

(वाह री मोहब्बत हर चीज़ बात करने लगती हैं )
कई बार देखा उसे फूलों से बात करते
उनके कानो मे कुछ कहते कुछ करते
मैं उसकी हर बात अपने उन फूलों से पूछा करता था

(ऐसा ही हैं जब कोई कुछ ना बताये तो क्या करे )
मैं उसकी हर बात अपने उन फूलों से पूछा करता था

लिख कर हथेली पर वो क्यों हमेशा मेरा नाम काटती थी
ये बात मे किसी से नही पूछा करता था
लिख कर हथेली पर वो मेरा नाम हमेशा काटती थी
और मैं अपने हाथो कि लकीरों मे उसको dhundha करता था
शायद रेडियो पे कान लगाकर

(ध्यान से सुनियेगा उदयपुर )
शायद रेडियो पे कान लगाकर या kitchan मे खड़े खड़े
सुनती होगी मेरी आवाज़ बस मेरा नाम लेते लेते
बस मोहब्बत ने ही जोड़ दिया अब दिल का हर अरमान
वो खुश रहे हमेशा
बस हमारी खुशी से रही अब यही पहचान

एक प्यार भरा दिल था

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