Friday, April 11, 2008

8th April closing poem

Link :- http://rapidshare.com/files/106639714/8_april_closing.wav.html
Lyric :-
खामोश बातों की बस्ती मे घुमे मोहब्बत अकेली
अनकही अनसुलझी बनी हैं ये कैसी पहेली
खामोश बातों की बस्ती मे घुमे मोहब्बत अकेली
अनकही अनसुलझी बनी हैं ये कैसी पहेली
तेरा रूठना मेरा मनाना
तेरा रूठना मेरा मनाना
पर तेरा रूठना कुछ पल का सही
लगता हैं जैसे उस पल ज़िंदगी का हमसे रूठ जाना
तुझे मनाने मेरा ठंड मे भी चले आना
तू तो सोयी होती हैं अपनी रजाई मे
मेरा घंटो तेरी गली के चक्कर लगाना
(किसने कहा .... आय हाय !! ok )
किसी से डाँट ना पड़ने तक बाइक का हार्न बजाना
(मैं बहुत हार्न बजके अपनी गाड़ी चलता हूँ )
कि किसी से डाँट ना पड़ने तक बाइक का हार्न बजाना
ना रूठना बुरा हैं ना
रूठे सनम को बुरा लगता हैं मेरा मनाना
पर तेरा पायल चंककर क्यों
एक दीवाने को और दीवाना बनाना
नाज़ हैं मुझे तेरे हुस्न पर
(बहुत खूबसूरत हैं वो यार ना पूछो कैसी हैं )
कि नाज़ हैं मुझे तेरे हुस्न पर
पर दीवानों सी बात करते करते
इस दीवाने को दीवाना बुलाना थोड़ा सा बुरा लगता हैं
कि दीवानों सी बात करते करते
इस दीवाने को दीवाना बनाना इन्ना सा बुरा लगता हैं
चलो अच्छा हैं कि तू हफ्ते मे दो तीन बार रूठ जाती हैं
चलो अच्छा हैं कि तू हमसे हफ्ते मे दो तीन बार रूठ जाती हैं
इसी बहाने ही सही वो कुछ गुलाब लाने कि
ताकत तो हममे ना जाने कहाँ से आती हैं
खामोश बातो कि बस्ती मे घुमे ये मोहब्बत अकेली
अनकही अनसुलझी जाने ये ज़िंदगी तेरे बिना कैसी पहेली

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