Friday, April 11, 2008

9 th April closing poem

Link :- http://rapidshare.com/files/106647183/9_april_closing_poem.wav.html
Lyric :-
सर से पाँव तक एक दिन एक सिरहन सी हुई
( आह ह ह !!!!!! ऐसी सी कुछ )
सर से पाँव तक दिन एक एक सिरहन सी हुई
आईने पर जो दिखी बिंदी तेरी चिपकी हुई
एक पल मे जी लिया मैं पूरे पच्चीस बरस
एक पल मे जी लिया मैं पूरे पच्चीस बरस
जब देखा किसी को तेरे रंग की सारी पहनी हुई
अब छुअन मे वो तपन आग मे वो बैचैनी कहाँ
(ऐसा होता हैं जब जिससे हम बहुत सारा प्यार करते हैं वो थोड़ा सा भी दूर हो जाए तो फिर हर बात मे उसकी बात याद आती हैं मगर होता ये हैं कि )
अब छुअनमे वो तपन आग मे वो बैचैनी कहाँ
तू ना घर हो तो काँहे का घर
तू घर हो तो बस उसी पल वो घर लगे
मेरे कुरते का बटन टुटा तो ये जाना हैं क्यों
मेरे कुरते का बटन टुटा तो ये जाना हैं क्यों
तू मुझे हमेशा दिखती हैं काम मे उलझी हुई
ज़िंदगी का मतलब बस यही
वो प्यारी सी दो आंखें
कहीं ना कहीं बस पूरे दिन प्यार से
मेरी राह तकती हुई
सौ सवाल सौ सपने
बस ना सोती हुई पूरी रात मैं चैन से सो जाऊँ इसीलिए जगती हुई
तेरी चुडिया खनके तो जान जाती हैं सब
तेरी जब चुडिया खनके तो जान जाती हैं वो सब
कि क्यों चलती हवाए तेरा नाम गुनगुनाती हैं
कहानी वो अधूरी काश पूरी हो जाती
कहानी वो अधूरी काश पूरी हो जाती
तू रोज़ मुझे तेरे हाथ से दाल चावल खिलाती
और वही कहीं पेड़ की छाँव मे इस कमबख्त को
थोडी देर के लिए ही सही बस नींद आ जाती
सर से पाँव तक एक सिरहन हुई

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