Saturday, October 18, 2008

10th october closing poem

तुम्हारा नूर हैं जो अब दीखता हैं मेरे चहरे पे
तभी तो लोग हैं जो मुझे देखते हैं आजकल
वरना कौन देखता था मुझे अंधेरे में
मुझे बारिश में अब भीगने की आदत नही रही
पर जब तू अपनी जुल्फे सुलझाती हैं
घंटो भीगने का मन करता हैं
कभी बादल को पैदल चलते देखा नही
मगर तू चले जब नंगे पाँव
तो वो भी पैदल चलने लगते हैं
एक बार तू उन्हें पलट कर देख ले
ऐसी गुजारिश वो करते हैं
कभी सूरज को दिन में ढलते देखा नही
क्यूंकि वो बस रात में रोती हैं
और कभी रात को सोते देखा नही
क्यूंकि वो रात में ही कहीं खोती हैं
कभी तितलिया एक जगह नही रहती टिककर
कभी तितलियों को एक जगह पर न टिककर बैठे देखा
ये तितलिया बड़ी कमबख्त होती हैं
रंग होते जितने उनके परो में
ये सपने उतने दिखाती हैं
सपने उतने दिखाती हैं और
और हर सपने में हर बात में
तू आजकल क्यों चली आती हैं
दूर की चीजे भी साफ़ नज़र आती है
और आजकल पास की चीजे भी धुंधली नज़र आती हैं

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