Tuesday, October 28, 2008

24th october opening poem

कभी मुझको मनाओ तुम मैं तुम से
तो मैं तुमसे अगर मैं रूठ
कभी पलकों पर आंसुओ को रुकते देखा
कभी आंसुओ से पलकों को सजते देखा
पर कभी होता हैं ऐसा जैसा कभी

कभी होता वैसा ही जैसा होता ही
मैं सोचता नही अब चाँद
चाँद दूर रहता हैं कुछ कहता नही
नही मैं सोचता परियो की बात
वो चाँद पलोकी मुलाकात
तू सोच में क्यों चली आती हैं
इसीलिए रूठ जात हु मैं किसी से मैं

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