Monday, October 27, 2008

16th october opening poem

मैंने सोचा कुछ ऐसा
शायद किसी ने सोचा न जैसा
मुझे सन्नाटे बोलते नज़र आते
(कई दिन से ऐसा होता हैं )
कि मुझे सन्नाटे बोलते नज़र आते
और कभी ये शोर भी चुप हो जाते
मैं तो बालकनी पर उस चाँद को देखने खड़ा होता
और न जाने क्यों मोहल्ले भर में किस्सा हो जाता
मैं तो ढलते सूरज से बात करने झील किनारे जाता
और शाम का मंज़र न जाने क्यों इतना हसीं हो जाता
शायद तू उस मंज़र की याद में बसी रहती हैं
तभी तो वो झील भी आजकल चुप चुप रहती हैं
बोलती वो तभी जब झरने से हैं मिलती
अब समझा क्यों मैं उस झरने की हँसी में तेरी आवाज़ हैं कितनी मिलती
ऐसे ही तू जाने अनजाने सोच में आना
ताकि मुझे मिले एक नई कविता लिखने का
एक और नया बहाना

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