Monday, October 27, 2008

18th october closing poem

मैं इक बार रो लू लिपट के तुझसे
कि रोज़ मैं रोना नही चाहता
तू मुझ से दूर रहकर भी मेरी रूह में रहे
मैं सच मच तुझे खोना नही चाहता
तुझसे जुदा होकर मैं जिंदा रहू कभी
अपने ख्वाबो में भी इक पल मैं ऐसी नींद सोना नही चाहता
मेरी आंखों की नमी कभी तेरी पलकों को छुए
मैं गुनेहगार कभी ऐसा होना नही चाहता
तू चांदनी हैं मेरी काली रातो की
(क्या हैं तू)
तू चांदनी हैं मेरी काली रातो की
तुझे तो मैं धुप मैं भी खोना नही चाहता
मौसम चाहे कोई सा भी रहे
मौसम चाहे कोई सा दिन कोई सा भी हो
मैं तेरी yaado से अब दूर होना नही चाहता

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