Monday, October 6, 2008

2nd october closing poem

ये मेरी जुबां क्या कहे
मेरे दिल मे जो कैद रहता हैं
बस उसी की बात करे
शब्द जो भी इस जुबां पर आता हैं
न जाने क्यों तेरा ही नाम फरमाता हैं
मेरी आवाज़ जो तेरे कानो मे खनकती हैं
ये सीधे मेरे दिल से खनकती हैं
मैं पूछता हूँ ख़ुद से की क्यों ये जुबां
खुदा से पहले तेरा नाम लेती हैं
घर मे दस्तक हवा भी दे तो
तेरा अहसास मेरे पास होने का ये कहती हैं
नही रोक सकता मैं इस जुबां को लेने से तेरा नाम
क्यूंकि तेरे नाम से ही तो मेरी सुबह होती हैं
मेरी शाम मेरी रात होती हैं

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