Tuesday, October 14, 2008

8th october closing poem

वो मेरा तेरी आंखों के समंदर में उतर जाना
और तुझे बस अपनी साँस रोक कर एक तक देखते जाना
तेरी आवाज़ के सेहर से कभी न निकल पाना
और तू जब मुझसे बात करे तो
तुझे बस सुनते चले जाना
बहुत चाहा इन गुज़रे हुए लम्हों को न सोचना
न तेरी यादो में रहकर तेरी हर बात को महसूस करना
(मगर सारी बातें कहाँ वैसी होती हैं जैसा हम सोचते हैं zindagi vahi करती हैं vahi kahti हैं जो हम नही सोचते )
भुला du सारी yaado को जो दिल dukhaati हैं
(कई बार सोचा की क्या हैं यार रोज़ रोज़ की वही टेंशन वही झिकझिक छोडो यार )
भुला दू सारी यादो को जो दिल दुखाती हैं
पर क्या करू यार वो दिल दुखाये कितना भी
याद बहुत आती हैं
डरता नही मैं दिन से पर ये रात मुझे बहुत डराती हैं
ख्वाबो ने अब मेरी आंखों में आना छोड़ दिया
पर ये नींद मेरी पलकों से निकल कर
कमबख्त मेरी ही चप्पल पहनकर मेरी कालोनी से न जाने कहाँ चली जाती हैं
चाँद देखता हैं टकटकी लगाए खिड़की से
कमबख्त ख़ुद तो तारो से बतियाये और हमे जगाये रखता हैं

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