Tuesday, October 28, 2008

24th october closing poem

तुम सब पर लिखते हो मुझ पर कब कुछ लिखोगे
मैंने कहा उस दिन लिखूंगा
जिस दिन शब्द ख़ुद कतार बनकर मेरे पास आयेंगे
खुबसूरत तू सबसे ज्यादा ये
खुबसूरत शब्द को बतलायेंगे
बादल चाँद सितारे ये हो गए सारे पुराने
और गीतों में कहाँ ताकत जो गाये तुझपे तराने
इसीलिए मैं लिखता नही कोई कविता
न ग़ज़ल गुन्गुनानी आती हैं
पता नही उस बहते पानी में किसकी तस्वीर अचानक ही बन जाती हैं
और क्यों वो उड़ते पंछी तेरी बात सुनते सुनते रुक जाते हैं
लौटना होता हैं वक्त पे घर
और ख़ुद वक्त से पहले ठहर जाते हैं
वो कहती मुझ पर कुछ लिखते क्यों नही
कलम बेचारी चलती ही नही
ये कमबख्त आगे बढती ही नही
वजह सिर्फ़ इतनी
इस कलम की नज़र भी तुझसे हटती नही
उंगलिया ये कलम उठाये कैसे
इनकी कपकपाती कशिश
तेरी आंखों की कशिश के आगे बढती ही नही

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