Thursday, October 9, 2008

4th october opening poem

कैसे इस घर की देखभाल करे
यहाँ रोज़ एक चीज़ टूट जाती हैं
मैं अब भी खिड़की पर हर शाम खड़ा होता हूँ
उम्मीद तेरे आने की फ़िर क्यों रूठ जाती हैं
मैंने अब घर लौटते पंछियों से बात करना छोड़ दिया
फ़िर भी क्यों उनकी खामोशी मेरा ध्यान तोड़ जाती हैं
फूल मेरे आँगन में अब खिलते नही
उनके खिलने की कोई वजह मुझे नज़र नही आती
और वो तितलिया वो अब मेरे मोहल्ले का पता तक भूल गई
इसीलिए शायद उनके पारो में अब तेरी खुशबु नही आती
चलो शायद यही मोहब्बत होती हैं जहा वजह न हो किसी के आने की
फ़िर भी हर बार एक वजह नज़र आती हैं

No comments: