Tuesday, October 14, 2008

9th october closing poem

कुछ तुमको याद नही
कुछ हम भूल गए शायद
मगर फिर भी उन बीती यादो को
याद करना सुहाना लगता हैं
मिले थे कभी जिन गलियों में हम
उन राहो पर जाना मुश्किल बहुत मुश्किल लगता हैं
फ़िर भी न जाने क्यों उन राहो को पीछे से
बार बार पलट कर देखना अच्छा लगता हैं
तुम शायद खुश अपनी दुनिया में
मैं अपने काम में खुश रहने की कोशिश करता हूँ
ख़त वत तो लिखना मुझे आता नही
इसीलिए अपने मोबाइल पर messege लिखता हूँ
आलम तो ये हैं नींद को भी मैं अब रिश्वत देता हूँ
कि साथ तेरे उन सपनो में महीने में कम से कम एक बार तो रह ले

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