Friday, October 10, 2008

7th october opening poem

तेरी दीवानगी का राज़ बनकर एक ओस की बूंद में बस जाऊ
कोई दीवार न हो जिसमे रह्बसर की
ऐसे घर की हर दीवार में मैं बस जाऊ
तेरी आरजू का अहसास बनकर
मिलूँगा मैं तुझे तेरी प्यास बनकर
तू गर न मिले तो मैं बिखर जाऊ
तेरे रंग में रंग कर अबके बरस मैं होली मनाऊ
तेरे ही नक्शे पर चलता चला जाऊ
न मोड़ का पता हो न फ़िर मैं कुछ गुनागुनाऊ

(जब किसी से बहोत सारी मोहब्बत हो जाती हैं तब ऐसा होता हैं )
न मोड़ का पता हो न मैं कुछ गुनागुनाऊ
तेरा ही साया जिधर नज़र आए
मैं रुख बस उधर का कर जाऊ
इतना प्यार मैं बस तुझे ही दे पाऊंगा
तुझसे दूर एक पल न जी पाऊंगा
मेरी जुबान से बोलू तेरे दिल की हर बोली
मेरी जिद से न खेलो तुम
ए खुबसूरत अब कोई आँख मिचोली

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