Monday, October 27, 2008

16th october closing poem

प्यास दरिया की निगाहों से बचा रखी हैं
एक बादल से हमने बड़ी आस लगा रखी हैं
खामोशी खामोश हैं
सन्नाटे चुपचाप हैं
तेरे जाने से ये आलम सारे अपने आप हैं
यूँ तो लगती हैं हर तरफ़ नमी नमी सी
तेरे जाने के बाद कोई कमी कमी सी
फ़िर क्यों न जाने हम इतना तरसे
(कुछ सवाल होते हैं जिनके जवाब नही होते )
फ़िर क्यों न जाने हम इतना तरसे
इक बदल का टुकडा
ये इक बदल का टुकडा
(आप जानते हैं न बादल के टुकड़े जब इकठ्ठे हो जाते हैं साथ साथ हो जाते हैं तो कैसा लगता हैं )
ये इक बादल का टुकडा अब कहाँ कहाँ बरसे
ढूंढा देखा तो जाना
ये तमाम शहर हैं निगाहों से प्यासा
ये इक बादल का टुकडा अब कहाँ कहाँ बरसे

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