Tuesday, October 28, 2008

27th october closing poem

वो चेहरे पे बनावट का गुस्सा
वो उसकी आंखों मे छलकता प्यार भी
तेरी इस अदा को क्या कहे
कभी इकरार भी कभी इनकार भी
मुझे मिला वक्त तो तेरी जुल्फे सुलझा दूंगा

अभी तो ख़ुद वक्त से उलझा हूँ
एक दिन वक्त को उलझा दूंगा
दिल ये अब कुछ मानता नही उदयपुर
तेरे सिवा अब ये कुछ जानता नही
पहले मेरे पास होती थी हजारो बातें करने को
आजकल तेरे सिवा कोई बात हो
वो दिन कैलंडर मे आता नही
हर पल तुझे याद करना तुझे सोचना
तुझे बेंतेहा प्यार करना और
मेरे उदयपुर तेरे लिए वो सब कुछ करना
जो किसे ने कभी किया ना हो किसी ने कभी सोचा ना हो

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