Monday, August 18, 2008

18th august opening poem

तुम चाहे जुबान से कुछ न कहो
तुम मुझसे मोहब्बत करती रहो
मेरे बारे में सोचती हो
क्यों ये कमाल करती हो
क्यों करवट करवट जगती हो
क्यों छुप छुप कर डायरी लिखती हो
रात में तुम छत पर आकर क्यों तारे गिनती हो
क्यों तुम ये कमाल करती हो
जब कोई सहेली आती हैं
क्यों उसको अलग से ले जाती हो
क्या मैं भी आने वाला हूँ
क्यों ये पूछ कर शर्माती हो
आग तो दोनों तरफ हैं लगी
पर क्यों तुम कुछ न कह पाती हो
जैसा की मैं तुम मैं खोया हूँ
तुम भी मुझमे खोयी रहती हो
तुम चाहे जुबान से कुछ न कहो
पर तुम मुझसे मोहब्बत करती हो

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