Friday, August 15, 2008

5th august opening poem

रोज़ मेरी धड़कने चाँद के आने का इंतज़ार करती हैं
जानती हैं वो चाँद मेरा नहीं फिर भी उसी का इंतज़ार करती हैं
कल जब चाँद पर नज़र गयी तो वो चाँद कुछ चुप चुप सा नज़र आया
बहुत कुछ कहना चाहता था मुझको
पर बादलो की आड़ मे कुछ ठीक से नज़र ना आया
ऐसे छुप कर देख रहा था मुझको जैसे
तुम चुन्नी से छुप छुप कर देखा करती हो मुझको
गुस्सा होती हो तो दूर बैठ जाती हो
नीची निगाहें करके फिर भी आवाज़ मेरी ही सुनती जाती हो
कमबख्त ये गुस्से की कशमकश चल ही रही थी कि
ना जाने कहाँ से ये बारिश आ गयी
तुम्हारी छोटी से आती सौंधी सौंधी सी खुशबु ला गयी
अब क्या कहू उस चाँद को उसे तो बचपन से एक ही रंग मे देखता आया हु
पर तुम पर तो हर रंग हाय कमाल लगता हैं
बस बारिश के आते ही वो पुरानी यादें दोनों के गुस्से के बीच फिर ताजा हो गयी
बुँदे तो बहार गिरी पर दिल की ज़मीन तेरे प्यार से तर हो गयी
मैंने तुम्हे मुस्कुरा कर देखा और तेरा गुस्सा ना जाने कहाँ काफूर हो गया
और सच कहू तेरी हर बात पे हमे और प्यार आ गया

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