Tuesday, July 15, 2008

15th july closing poem

दर्द मे पनपते हैं गीत ऐसा ही कुछ लोग कहते हैं
सीने मे कुछ दर्द कसम से जिंदा दफ़न रहते हैं
छोटे से दिल मे उमड़ते हैं रोज़ कई सागर
कातिल लहरों मे कसम से
कई माटी के घरौंदे मिलते हैं
कहाँ मिलता हैं ऐसे शब्दों को सँभालने वाला कोई
हर पल रोज़ कहीं शब्दों से किसी के दिल मे
ना जाने कितने महल बनते हैं
ना वक्त ना हालत लगा सकते हैं उस पर कोई मरहम
वो दिल सीने मे कसम से कितना दर्द सहते हैं
सच कहते हैं वो कि दर्द की कोई सीमा नही होती
हम दर्द देने वाले दीवानों से कहाँ दर्द की बात कहते हैं

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