Friday, July 25, 2008

19th july opening poem

सोचता हूँ काश कुछ ऐसा होता
सब कुछ मैं चाहू वैसा होता
जब मन मे कोई ख्वाहिश होती
पलक झपकते ही पुरी होती
न करना पड़ता मुझे किसी का इन्तेज़ार
न इज़हार का इन्तेज़ार होता
काश जैसा मैं चाहू वैसा होता
एकं क्या मैं सच मे खुश होता
आसानी से मिली सफलता को अपनाता
या बात बात सफलता पाने के लिए कठिन रास्तो पे चलता जाता
मन शायद मन को न जाने दिन मे कितनी बात धिक्कारता
छोटी सी हैं बात पर नाराज़ सा हो जाता
अपने हाथो पाई हर छोटी चीज़ बहुत बड़ी सी होती हैं
पर मोहब्बत के बिना जिंदगी अधूरी होती हैं
इस काश से भी तो जिंदगी उलझती हैं
तू बार बार काश कहती हैं
और मेरी हर बात तुझसे शुरू होकर तुझपे ख़त्म होती हैं
मुझे रोता सुन मेरे आंसुओ को वो समझ जाता हैं
काश नही कहना पड़ता बस मुझे चुप कराने वो ऐसे ही चला आता हैं
काश हर सुबह की तरह इस सुबह भी जिंदगी आपको वो सब कुछ दे
जिसके बारे मे आप पिछली रात सोच कर सोये थे
आपको मिले हर खुशी बस यही हैं मेरी खुशी

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