Monday, July 14, 2008

9th july evening poem

लहरों को ये पता हैं कि किनारे से मिलके वो बह जायेंगी
फिर समंदर मे फ़ैल कर वो रह जायेंगी
अपने अस्तित्व को दावपर लगा कर
क्यों लहरों को वो किनारा भाता हैं
क्या पता क्या यही प्यार कहलाता हैं
मोम सब कुछ जानकर भी बाती को अपने दिल मे बसाता हैं
और बाती के साथ वो ख़ुद भी पिघल जाता हैं
कोई नही जानता हैं कि क्या मोम और बाती का नाता हैं
क्या यही प्यार कहलाता हैं
क्यों बारिश की बुँदे धरती से मिलाने कि चाह रखती हैं
ख़ुद बरसकर धरती मे खो जाती हैं
पता नही ये उससे क्या आस रखती हैं
पता नही क्या यही प्यार कहलाता हैं
पता नही हर सुबह एक शख्स चौबीस पच्चीस साल का
कहाँ से चला आता हैं
ना देखा उसे ना उसकी शक्ल तक मालूम
पर उसकी आवाज़ से अब इस उदयपुर का एक सच्चा नाता हैं
क्या यही प्यार कहलाता हैं
घर के किसी कोने मे रख दिया उसे
कहीं मन्दिर मे कहीं पूजाघर मे
कहीं बाहर किसी थडी पर
कहीं नाई वाले भइया ने दूकान पर चिपका रखा हैं
क्या यही प्यार कहलाता हैं
चाय पीते पीते बिग चाय बिग चाय बार बार दोहराता हैं हर शख्स
बात करते करते हमारी बात मे चला जाता हैं हर शख्स
बताइए उदयपुर क्या यही प्यार कहलाता हैं
हर बात मैं अपने लफ्जों से बया कर देता हूँ फिर भी
हर बार कुछ बाकी रह जाता हैं
क्या यही प्यार कहलाता हैं

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