Friday, July 25, 2008

18th july closing poem

वो लड़की भी एक अजीब पहेली थी
होठ प्यासे आँखें समंदर थी
सूरज उसको देख कर छुप जाता था
वो जब धुप मे निकलती थी
उसको बस अंधेरे से डर लगता था
जब सेहरा मे दूर कहीं एक रोशनी चमकती थी
आते जाते मौसम अब उसको डसते थे
एक दिन वो मौसम बदलने पर मौसम सी लगती थी
कभी हंसते हंसते पलकों से रो पड़ती थी
कभी रोते रोते वो हंसाने लगती थी
वो लड़की भी अजीब पहेली थी
आधी रात की सज़ा वो तारे गिनने से देती थी
बस मेरे सिवा चाँद से बातें करती थी
दूर से उजडे मन्दिर जैसा घर था उसका
वो मेरे घर को ही अपना मन्दिर कहती थी
हवा को रोक कर अपने आँचल से
बस सूखे फूल मेरे नाम के उस मन्दिर से चुना करती थी
वो लड़की एक अजीब पहेली थी


No comments: