Monday, June 30, 2008

10th june opening poem

जब दास्ताँ हम कहेंगे
करेंगे ना तेरा जिक्र भी हम
मगर ना फिक्र कर तु
लेंगे ना तेरा नाम तक भी हम
सुनते रहे सबके दिलो की दास्ताँ हम
कह तक ना सके अपना हाल - ए -दिल भी हम
अपने सभी अजनबी लगे जो राह मे मिले
अभी घर से चले थे बस दो ही कदम हम
क्यों वक़्त बेरुखी से कटा जब बात किसी से भी की
रहते हैं खूब खुश जब मिलते हैं खुद से हम
शहरो मे तो हर किसी की कहानी हैं हारी सी
नयी ज़िन्दगी जीने चले गाँव की तरफ हम
ज़िन्दगी एक दिन मे सिमट गयी ऐसी कि
सूरज के सामने जलते रहे बन के दीप हम

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