Monday, June 30, 2008

23rd june opening poem

कोई दीवाना कहता हैं कोई पागल कहता हैं
मगर दिल की बैचैनी को बादल समझता हैं
मैं तुम से दूर कैसे तुम मुझ से दूर कैसे
ये तेरा दिल धड़कता हैं तो मेरा दिल समझता हैं
दिल की बात होठो पर लाकर हम दुःख सहते हैं
हमने सुना था इस बस्ती मे कही दिलवाले रहते हैं
बीत गया सावन का महिना मौसम ने नज़ारे बदली
लेकिन इन प्यारी आँखों मे अब भी आंसू रहते हैं
एक हमे आवारा कहना कोई बड़ा इल्जाम नहीं
दीवानों को तो लोग ना जाने क्या क्या कहते हैं
जिनकी खातिर शहर छोडा बदनाम हुए
आज वही हमसे बदले बदले रहते हैं
पूरी तनख्वाह जिसके लिए साडी लाने मे लगा दी
वो इसे फिजूलखर्ची कहते हैं
बात उसके घर के चक्कर लगाने की
उसने सखियों को बता दी
आग बिन मौसम सारी बस्ती मे लगा दी

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