Monday, June 30, 2008

11th june closing poem

दिल की आग के इस धुएँ मे मंजिल खो बैठे
तेरी याद ऐसी आई कि सांस लेना भूल बैठे
शायद किसी सपने मे तेरी एक झलक देखि होगी
इस उम्मीद मे आँखें खोलना भूल बैठे
हम थे नादान जो एक उड़ते बादल को
अपनी मंजिल कह बैठे
सोचा था क्या और क्या कर बैठे
जिस पर हम जीते मरते हैं वो तो बेखबर
और हम उसकी मोहब्बत मे ना जाने क्या क्या
खुद पर ही सितम कर बैठे

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