Thursday, June 26, 2008

17 th may opening poem

वो चेहरे पे बनावट का गुस्सा
आंखों से छलकता प्यार भी हैं
तेरी इस अदा को क्या कहे
कभी इकरार भी हैं
इनकार भी हैं
कल मिला वक्त तो जुल्फे तेरी सुलझा दूंगा
आज तो ख़ुद वक्त से उलझा हूँ कल ख़ुद वक्त को उलझा दूंगा
दिल को मानना अगर होता आसान
ना करता किसी को ये यूँ परेशान
अकेला ना रहता दोस्तों के बीच
ना होती ऐसी हालत जो ना हो बयान
खोजता रहता हूँ कुछ पल तेरे जैसे
पर मिलते कहाँ हैं ऐसे पल
कभी तेरे जैसे कभी मेरे जैसे
तभी तो वो ख्वाबो मे भी लगती हैं ख्यालो जैसी
तेरे बिन जिंदगी ना ख्वाब जैसी ना खयालो जैसी

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