Monday, June 30, 2008

16th june opening poem

बहला चूका हूँ मन को जूठी तसल्लियों से
पोंछे हैं आंसू अपनी हथेलियों से
जो हाथ होता तेरा तो तकिया बना के सोता
रोके हैं आंसू तेरे हाथो की लकीरों से
तुम थोडा और पास आती तो धडकनों को सुनती
मैंने बटन टाँके हैं अपनी ही उंगलियों से
धागा दिल का जुड़ गया जब दांतों से तुमने उसे काटा
बटनों का मन कहे ये तेरे कानो की बालियों से
दीवार पूछती हैं तेरी आँखों की पुतलियों से
फूलो का फिर एक बार फेरा लगाने आना
काँटा हूँ मैं कहता यही खुबसूरत तितलियों से
अँधेरा चाहे कितना भी घना क्यों ना हो
तेरा साया साफ़ नज़र आता हैं उन जालियों से
बस प्यार हैं तुझसे तुझ से ही रहेगा
चाहे मुलाकात हो रोज़ कितनी भी परियो से

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