Monday, June 30, 2008

19th june opening poem

वो पूछती हैं मुझसे चाँद की बस्ती कहाँ हैं
मैं इस बात पर ईद का इंतज़ार करता हूँ
वो पूछती हैं मुझसे कौन सूरज मे सुलगता हैं
मैं बस चुप रह कर खुद ही खुद उलझता हूँ
वो पूछती हैं रूह की लरज़िश के बारे मे
मैं क्या कुछ कहू बस चुप रहता हूँ
वो बोली सावन मे अब वो रंग क्यों नहीं
मैंने कहा बस इतना कि तेरे बिना आँख नाम हैं
सबसे छुपा कर दर्द जो वो मुस्कुरा दिया
उसकी इसी बात ने हमे रुला दिया
आँखों से उठ रहा था दर्द का धुआं
चेहरे बता रहे थे हमने अपना सब कुछ गवा दिया
जाने उसे लोगो से थी क्या शिकायते
तन्हाइयो के डेरे मे मुझ बातुने को बुला दिया
आवाज़ मे था ठहराव आँखों मे नहीं
रोते रोते कह रहा था कि हमने सब कुछ भुला दिया

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